Friday 29 May 2015

मूर्तीपूजा का अर्थ स्वामी विवेकानंद के द्वारा


स्वामी विवेकानंद को एक मुस्लिम राजा ने अपने भवन में बुलाया और बोला,”तुम हिन्दू लोग मूर्ती की पूजा करते हो! मिट्टी, पीतल, पत्थर की मूर्ती का.! पर मैं ये सब नही मानता। ये तो केवल एक पदार्थ है।” उस राजा के सिंहासन के पीछे किसी आदमी की तस्वीर लगी थी। विवेकानंद जी कि नजर उस तस्वीर पर पड़ी। विवेकानंद जी ने राजा से पूछा,”राजा जी, ये तस्वीर किसकी है?” राजा बोला,”मेरे पिताजी की।” स्वामी जी बोले,”उस तस्वीर को अपने हाथ में लीजिये।” राजा तस्वीर को हाथ मे ले लेता है। स्वामी जी राजा से :”अब आप उस तस्वीर पर थूकिए!” राजा :”ये आप क्या बोल रहे हैं स्वामी जी? स्वामी जी :”मैंने कहा उस तस्वीर पर थूकिए..!” राजा (क्रोध से) :”स्वामी जी, आप होश मे तो हैं ना? मैं ये काम नही कर सकता।” स्वामी जी बोले,”क्यों? ये तस्वीर तो केवल एक कागज का टुकड़ा है, और जिस पर कूछ रंग लगा है। इसमे ना तो जान है, ना आवाज, ना तो ये सुन सकता है, और ना ही कूछ बोल सकता है।” और स्वामी जी बोलते गए,”इसमें ना ही हड्डी है और ना प्राण। फिर भी आप इस पर कभी थूक नही सकते। क्योंकि आप इसमे अपने पिता का स्वरूप देखते हो। और आप इस तस्वीर का अनादर करना अपने पिता का अनादर करना ही समझते हो।” थोड़े मौन के बाद स्वामी जी आगे कहाँ, “वैसे ही, हम हिंदू भी उन पत्थर, मिट्टी, या धातु की पूजा भगवान का स्वरूप मान कर करते हैं। भगवान तो कण-कण मे है, पर एक आधार मानने के लिए और मन को एकाग्र करने के लिए हम मूर्ती पूजा करते हैं।” स्वामी जी की बात सुनकर राजा ने स्वामी जी से क्षमा माँगी ।

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